रवांई मैं जलाई जाती दुनिया की सबसे लम्बी मशाल ।। लोक संस्कृति के विविध रंगों से रंगी होती है ‘देवलांग’

 



रवांई जलाई जाती दुनिया की सबसे लम्बी मशाल
लोक संस्कृति के विविध रंगों से रंगी होती है 'देवलांग'
उत्तरकाशी (चिरंंजीव सेेमवाल)।    देश दुनिया भर में भले कार्तिक माह की दीपावाली मनाई जाती हो, लेकिन पहाडों में बग्वाल  ''देवलांग'' परम्परा कुछ अनूठी है। या यूं कहें कि उत्तरकाशी जिलेे के, रवांई घाटी,जौनपुर, जौनसार में भगवान श्रीराम भगवान का अयोध्या लौटने की खबर ठीक एक माह मिलती है। तभी तो सदियों से रवांई के गैरबनाल व ठकराल के मणपाकोटी में ''देवलांग'' का पर्व मनाने की अलग ही परम्परा है। ''देवलांग'' दुनिया की सबसे लम्बी मशाल है  यही वजह रही कि प्रचार -प्रसार के आभाव दुनिया की सबसे लम्बी मशाल आज सरकार की उपेक्षों के चलतें देश विदेशों के पर्यटकों नजरों से कोषों दुर है ।
 ''देवलांग'' को ठीक एक माह बाद मनाने पर  कुछ लोगों का मत कि भौगोलिक परिस्थितियों के कारण कार्तिक मास में खेती का कार्य पूरा न होने के कारण यहां दीपावाली नहीं मनाई जा सकती जिस के चलते ठीक एक माह बाद इस दीपावाली को मनाने की परम्परा सी बन गई है। जब की कुछ लोगों का तर्क कि वीर माधे सिंह भण्डारी की कुछ लोगों ने राज दरबार में झूठी शिकायत की थी। इस बग्वाल के दौरान उन्हें राज दरबार में बुलाया गया था। इसलिए लोगों ने अपने प्रिय नेता के जेल जाने पर यह त्यौहार नहीं मनाया, जब एक माह बाद राजा ने भण्डारी को जेल से रिहा किया तब ठीक एक माह बाद लोगों ने जश्न के साथ देवलांग मनाई जिस से आज यह एक परम्परा सी बन गई है। वही उत्तरकाशी,चमोली में मंगसीर  की बग्वाल को एक माह बाद मनाने के पिछे यह कारण है कि 1627-28 के बीच गढ़वाल के राजा  महिपत शाह के शासन के दौरान तिब्बती लुटेरे गढ़वाल की सीमाओं के अंदर घुसकर लूटपात करते थे
तब माधो सिंह भण्डारी ने अपनी सेना इस दौराने चमोली के  पैनखंडा और उत्तरकाशी के टक्नौर क्षेत्रा में भेजी थी।  गढवाल  सेना विजय पताका फहराते हुए दावा घाटी;तिब्बत तक भारत के झेडे गाडे  थे इस खुशी में यह ब ग्वाल मनाएं जाने की परम्परा है।    
यूं तो रवांई घाटी अपनी  अलग संस्कृति, सभ्यता और परम्पराओं के लिए जानी जाती है। लेकिन ''देवलांग'' परम्परा मनाने का त्यौहार देखने लायक है। रवांई के समेत जौनपुर, जौनसार में भी इस पर्व  को लोग आज भी बडे  धूमधाम से  मनाते है। रवांई के बडकोट से महज 20 किमी. दूरी पर देवदार के घने वृक्षों के तलहटी में बसा गैरबानाल का गाॅव है। जहां राजा रघुनाथ का प्राचीन मन्दिर बना है। इसी मन्दिर परिसर पर देवलांग का उत्साह होता है।  इससे देखने के लिए लोग दूर - दूर से भारी संख्या में आते है मुख्य रूप से बडकोट, मुंगरसन्ती , गोडर, ठकराल, गीठ, वजरी, कमल सिंराई, उप्ला सिंराई, मोरी नैटवाड जौनपुर, जौनसार पटटियों के लोग हिस्सा लेता है। ''देवलांग'' को सम्पन्न करने में बनाल के लोगों की खास भूमिका रहती है। सदियों से चली आ रही परम्परा अनुसार ग्राम गौल के लोग उपवास रखकर ''देवलांग'' के लिए देवदार का सम्पूर्ण हरा वृक्ष का प्रबन्ध् करते है।  इस में वृक्ष का शीर्ष, खण्डित न हो, वृक्ष गौर मन्दिर परिसर में ढ़ोल बाजों के साथ लाया जाता है।  इसके बाद रावत थोक इस वृक्ष के सम्पूर्ण भाग पर सिल्सी बांध्कर उपवास रखकर ''देवलांग'' तैयार करते है। मध्य रात्रि के बाद बनाल पटटी के लोग अपने-अपने गाॅव से ढ़ोल बाजों के साथ में जलते मशाल ;ओलिहा के साथ मन्दिर  परिसर में आते है। यह दृश्य बडा ही दर्शनीय व अदभुत होता है। जब युवक/युवतियां बच्चे बूढे हाथों में जलती मशाल लिए नाचते गाते अपने-अपने थोकों ;समूहद्ध में प्रवेश करते हैं तो बनाल पटटी  को दो भागों में बांट रखा हैं,  जिनको साठी यानी कौरव का प्रतीक तथा पान साई पांडव का प्रतीक माना जाता है।


कौन था माधो सिंह भण्डारी?
उत्तरकाशी। माधो सिंह भण्डारी प्राचीन गढ़वाल के एक महान योद्ध था। उनका जन्म 1595 ई. टिहरी जनपद के मलेथा गाॅव में हुआ था। जिन्हें महाराजा महिपति शाह के सेनापति रहने का गौरव प्राप्त था। इसके अलावा तिब्बत से लेकर हिमाचल के सिमौर तक के तमाम युद्ध की जीत भण्डारी की देन बताई जाती है। भारत व चीन की सीमा तय करने में भी माधो सिंह भण्डारी का योगदान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है। इसलिए गढ़वाल के पंवाडों और हुडकियों में आज भी माधो सिंह भण्डारी की गाथा गायी जाती है। तथा माधो सिंह को गढ़वाल का भड़ भी कहा जाता है।