उत्तरकाशी " की धार्मिक परम्पराओं से जुडा है बाड़ाहाट कू थौलू।। आज शुरु होने जा रहा  बाड़ाहाट कू थौलू, केंद्रयी मंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक होगें मुख्य अतिथि।। चिरंजीव समेवाल

 



 



"उत्तरकाशी " की धार्मिक परम्पराओं से जुडा है बाड़ाहाट कू थौलू।।

 

आज शुरु होने जा रहा  बाड़ाहाट कू थौलू, केंद्रयी मंत्री डा. रमेश पोखरियाल निशंक होगें मुख्य अतिथि।।

चिरंजीव समेवाल


 

 इयं उत्तरकाशी हि प्राणि नाः मुक्तिदायिनी ।

 धन्य लोके महाभागः कलौयेशामिह  स्थितिः  ।।

उत्तरकाशी। पतित पावनी मां गंगा के उद्गम क्षेत्र उत्तरकाशी में सांस्कृतिक विविधता का समागम है। उत्तराखंड की यह तपोभूमि  प्राचीन काल  से ही  सौम्यकाशी के नाम से जानी जाती है। गंगा से अस्सी गंगा व वरूणा नदियों के संगम स्थलों के बीच बसा पौराणिक बाड़ाहाट नगर वर्तमान में उत्तरकाशी के नाम से जाना जाता है। उपनिषदों में इसके लिये ब्रहमपुर नाम का उल्लेख मिलता है इसी के अपभ्रंश से बाड़ाहाट शब्द संभव हुआ। साहित्यकार एवं यायावर राहुल सांकृत्यान ने बाड़ाहाट नगर को भारत-तिब्बत व्यापार का प्रमुख केंद्र माना है। उनके मुताबिक बड़ा बाजार का अपभ्रंश ही बाड़ाहाट होना माना गया है। केदार खण्ड के मुताबिक वाराणसी से भी अधिक महत्वपूर्ण स्थान उत्तरकाशी का माना गया है, मोक्षदायनी गंगा केे उत्तर वाहिनी होने के कारण इसका अपना विशेष महत्व है। धार्मिक परम्परा के मुताबिक मान्यता यह भी है कि काशी के कोतवाल  आनंद भैरव की पूजा केे बिना यहां किसी अन्य देवता की पूजा अध्ूरी मानी जाती है। ज्योतिषियों के मतानुसार सूर्य के दक्षिण दिशा से उत्तर दिशा में प्रवेश करने के साथ ही मकर संक्रांति मकरेणी पर्व पवित्रा दिन माना जाता है। इस दिन से हिन्दू धर्म में सभी त्योहार व मांगलिक कार्यों को प्रारंभ के लिये शुभ मुहूर्त माना जाता है। यही कारण है कि भारत-तिब्बत व्यापार के मुख्य केंद्र बाड़ाहाट में आयोजित पौराणिक बाड़ाहाट का थौलू का आयोजन भी मकरेणी पर्व से ही माना जाता है।

पौराणिक काल से ही महत्वपूर्ण धार्मिक व व्यापारी केंद्र बड़ाहाट नगर भोट व्यापारियों जिन्हें तिब्बती व भोटिया भी कहा जाता है। इस समुदाय के लोग अपने याक, चैंर गायों, बकरों व भेंड़ों पर सामान लादकर यहां व्यापार के लिये आते थे।

नवजीवन की पुनरावृत्ति को जोडने के लिए यहां  की धर्मिक  व सांस्कृतिक विश्ष्टि की क्षलक माघ मेला ;बाड़ाहाट कू थौलू में देखने को मिलती

14 जनवरी मक्ररैणी के पर्व से शनि का अपने पिता  सूर्य से मिलन का योग बनाते है दुसरी ओर गुरू-बुध का अस्त होने का योग बनता हैं। उत्तरकाशी के माघ मेला पर्व का मात्रा यहां के रीति रिवाज, धर्मिक विशिष्ट व सांस्कृतिक विरासत का स्वरूप ही नहीं बल्कि इस पर्व का पौराणिक महत्व भी है। मकर संका्रन्ति  से शुरू होने वाला  यह त्योहार पूरे जिले  में बडे धूम धाम से मनाया जाता है। इस दिन गंगा घाटी के लोग अपने देवी देवताओं की डोलियों के साथ पतितपावनी मां गंगा में स्नान कराते है। इस के बाद माघ मेले का उदगाटन होता है। माघ मेले को लेकर उत्तरकाशी  का पौराणिक महत्व नगर के मध्य शिवलिंग के विषयक में कहा जाता है कि इसकी  स्थापना  परशुराम ने की थी। महाभारत कालीन  जनश्रृतियों  को भी  यहां  की धार्मिक  मान्यताओं  से जुडा गया है।  महाभारत  से मिले वृतान्त  के अनुसार  महासन्त जड भरत  ने उŸारकाशी में ही तपस्या की थी।   जिसके नाम से उत्तरकाशी  में आज  भी जड भरत घाट के नाम से शहर के एक हिस्से को लोग आज भी पुकारते है। जहां पाण्डव आज भी स्नान कर पुण्य लाभ लेते है । पांडव भी वनवास के  समय  जब हिमालय  की ओर  आये तो  काशी  नगरी  के कई  ओर  उन्होंने  भ्रमण  किया । महाभारत  के  पश्चात मौर्य काल/कुषण काल  और पिफर कत्यूरी वंश  के इतिहास  का भी  उŸारकाशी  से संबन्ध रहा है।  इतिहास के अनुसार 634 ईसा पूर्व चीनी यात्राी हवेनसांग ने भी इस  क्षेत्र का भ्रमण किया था 788 ई. में आदि गुरू शंकराचार्य के जन्म के   बाद यहां आर्य जाति का भी प्रदार्पण  हआ । विभिन्न  जातियों  के प्रादुभार्व  से यहां की धार्मिक संस्कृतिक का अनुठा संगम बना। इस स्थान  पर अपनी खुशियां बांटने  के पीछे एक लोक गाथा हे, कि जहां आज उत्तरकाशी बसा है। वहां पर कभी गंगा उत्तरवाहिनी होकर  बहती  थी।

तिब्बत व्यापर  से जुडा है माघ मेला

उत्तरकाशी ।  भारत- चीन व्यापर  से भी माघ मेला जुडा हुआ है।  यहां के बुजुर्ग बताते  कि जनपद  के सीमा से  सटे पडोसी मुलक चीन व तिब्बत का इस मेले  में ब्यापार का मुख्य केन्द्र था। पौराणिक काल से ही महत्वपूर्ण धार्मिक व व्यापारी केंद्र बड़ाहाट नगर भोट व्यापारियों जिन्हें तिब्बती व भोटिया भी कहा जाता है। इस समुदाय के लोग अपने याक, चैंर गायों, बकरों व भेंड़ों पर सामान लादकर यहां व्यापार के लिये आते थे। किन्तु बढ़ते आंतक वाद के खतरे  के चलते  अब  इन ब्यापारियाकें पर  रोक  लग  चुकी है।

किन्तु 1962 युद्व के बाद  यह व्यापार  धीरे धीरे समाप्त हो गया है।  भारत-चीन युद्व से पूर्व माघ मेले के अवसर पर  तिब्बत से ब्यापारियों का प्रमुख केन्द्र बिन्दु था, यही वजह  है कि  इस पर्व  में  गढ़वाल  की सदियों से चलीआ रही  परम्परा  की अनूठी संस्कृति की झलक आज भी माघ मेले में देखने को मिलती है।

आज शुरु होने जा रहा  बाड़ाहाट कू थौलू, केंद्रयी मंत्री डा. रमेश निशंक होगें मुख्य अतिथि।।


 

 

उत्तरकाशी  ।  मकर संक्रांति 14 जनवरी से शुुुरू होनेे जा रहे पौराणिक माघ मेेेले  का  उद्घाटन  आज यहां के आराध्य  कंडार देवता व हरि महाराज के  ढौल की सांध्य मैं बतौर मुख्य अतिथि केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री डॉ रमेश पोखरियाल निशंक व जिले के प्रभारी मंत्री  धन सिंह रावत करेगें।

 

   जिला पंचायत अध्यक्ष दीपक बिजल्वाण ने  बता दे कि   जनपद का  पौराणिक माघ मेला मकर संक्रांति 14 जनवरी से शुरू होने जा रहा है।  मेले मैं इस बार स्थानीय कलाकारों को  अपनी प्रतिभा  निखारने के लिए  जहां मंच दिया गया है  वही  मेले को आकर्षण बनाने  के लिए  यहां  के  पारंपरिक कंडार देवता रथयात्रा- हाथी का सॉन्ग,  रवांंई घाटी  सरनौल का पांडव नृत्य  , प्रसिद्ध लोक गायक महेंद्र चौहान, ओम बंधानी , सीमा चौहान आदि जैसे प्रमुख कलाकारों के कार्यक्रम, के साथ मौत का कुआं ,चरखी सहित विभिन्न विभागों के स्टाल वही  शहीद सैनिकों के परिवारों को सम्मानित करने का भी कार्यक्रम है ।  जिला पंचायत अध्यक्ष श्री बिजल्वाण  ने बताया है कि इस बार का माघ मेला का   ढर्रा बदला हुआ नजर आयेगा । माघ मेला पहली बार  सीसीटीवी कैमरों के निगरानी मैं होगा । जिससे मेले मैं माताओँ बहिनों को किसी भी प्रकार लूट खशूट व असुरक्षा महसुस नहीं करनी पडेगा। 




 


 

 


 


मकर संक्रान्ति,लोहड़ी व पोंगल की नामो से जना जाता त्योहार 


राजा भगीरथ सूर्यवंशी ,  तप साधना से  गंगा को पृथ्वी अवतरित करवाया।।


उत्तरकाशी। 14-15 जनवरी का दिन उत्तर भारत में मकर संक्रान्ति के नाम से मनाया जाता है जिसका महत्व सूर्य के मकर रेखा की तरफ़ प्रस्थान करने को लेकर है  कुंमाऊ  उत्तरायण कहते हैं, पंजाब में इसे लोहड़ी के नाम से मनाया जाता है। दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य में पोंगल का त्यौहार सूर्य के मकर राशि में प्रवेश का स्वागत कुछ अलग ही अंदाज में किया जाता है।सूर्य को अन्न-धन का दाता मानकर चार दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है।   पुराणों के अनुसार मकर संक्रांति का पर्व ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश, आद्यशक्ति और सूर्य की आराधना एवं उपासना का पावन व्रत है, जो तन-मन-आत्मा को शक्ति प्रदान करता है।
संत-महर्षियों के अनुसार इसके प्रभाव से प्राणी की आत्मा शुद्ध होती है। संकल्प शक्ति बढ़ती है। ज्ञान तंतु विकसित होते हैं। मकर संक्रांति इसी चेतना को विकसित करने वाला पर्व है। यह संपूर्ण भारत वर्ष में किसी न किसी रूप में आयोजित होता है।
विष्णु धर्मसूत्र में कहा गया है कि पितरों की आत्मा की शांति के लिए एवं स्व स्वास्थ्यवर्द्धन तथा सर्वकल्याण के लिए तिल के छः प्रयोग पुण्यदायक एवं फलदायक होते हैं- तिल जल से स्नान करना, तिल दान करना, तिल से बना भोजन, जल में तिल अर्पण, तिल से आहुति, तिल का उबटन लगाना।
सूर्य के उत्तरायण होने के बाद से देवों की ब्रह्म मुहूर्त उपासना का पुण्यकाल प्रारंभ हो जाता है। इस काल को ही परा-अपरा विद्या की प्राप्ति का काल कहा जाता है। इसे साधना का सिद्धिकाल भी कहा गया है। इस काल में देव प्रतिष्ठा, गृह निर्माण, यज्ञ कर्म आदि पुनीत कर्म किए जाते हैं। मकर संक्रांति के एक दिन पूर्व से ही व्रत उपवास में रहकर योग्य पात्रों को दान देना चाहिए।
*रामायण काल से भारतीय संस्कृति में दैनिक सूर्य पूजा का प्रचलन चला आ रहा है। राम कथा में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा नित्य सूर्य पूजा का उल्लेख मिलता है। रामचरित मानस में ही भगवान श्री राम द्वारा पतंग उड़ाए जाने का भी उल्लेख मिलता है। मकर संक्रांति का जिक्र वाल्मिकी रचित रामायण में मिलता है।
राजा भगीरथ सूर्यवंशी थे, जिन्होंने भगीरथ तप साधना के परिणामस्वरूप पापनाशिनी गंगा को पृथ्वी पर लाकर अपने पूर्वजों को मोक्ष प्रदान करवाया था। राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों का गंगाजल, अक्षत, तिल से श्राद्ध तर्पण किया था। तब से माघ मकर संक्रांति स्नान और मकर संक्रांति श्राद्ध तर्पण की प्रथा आज तक प्रचलित है।
 कपिल मुनि के आश्रम पर जिस दिन मातु गंगे का पदार्पण हुआ था, वह मकर संक्रांति का दिन था। पावन गंगा जल के स्पर्श मात्र से राजा भगीरथ के पूर्वजों को स्वर्ग की प्राप्ति हुई थी। कपिल मुनि ने वरदान देते हुए कहा था, ‘मातु गंगे त्रिकाल तक जन-जन का पापहरण करेंगी और भक्तजनों की सात पीढ़ियों को मुक्ति एवं मोक्ष प्रदान करेंगी। गंगा जल का स्पर्श, पान, स्नान और दर्शन सभी पुण्यदायक फल प्रदान करेगा।’
 महाभारत में पितामहा भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने पर ही स्वेच्छा से शरीर का परित्याग किया था। उनका श्राद्ध संस्कार भी सूर्य की उत्तरायण गति में हुआ था। फलतः आज तक पितरों की प्रसन्नता के लिए तिल अर्घ्य एवं जल तर्पण की प्रथा मकर संक्रांति के अवसर पर प्रचलित है।
सूर्य की सातवीं किरण भारत वर्ष में आध्यात्मिक उन्नति की प्रेरणा देने वाली है। सातवीं किरण का प्रभाव भारत वर्ष में गंगा-जमुना के मध्य अधिक समय तक रहता है। इस भौगोलिक स्थिति के कारण ही हरिद्वार और प्रयाग में माघ मेला अर्थात मकर संक्रांति या पूर्ण कुंभ तथा अर्द्धकुंभ के विशेष उत्सव का आयोजन होता है।